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जब मैं पागल होती हूँ / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
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जब मैं पागल होती हूँ
भागते हैं मुझ से सभी भय
युद्ध में निकला हुआ सिपाही जैसा
मालूम है मुझे ऐसा वक़्त
मरने और जीने की आधी–आधी सम्भावना
नहीं रहता है कुछ भी याद
लोगों की उपेक्षा
खदेड़ा गया आवारा कुत्ता जैसा
मुझे खदेड़ता हुआ समाज
तख़्ता से लटकाकर
फाँसी की रस्सी खींचने के लिए तैयार
जल्लाद जैसा राज्य
अभी–अभी बोली सिखता हुआ बच्चे कि तरह
मेरे प्रत्येक शब्द में होते हैं
बहुसंख्यक लोगों की समझ न आनेवाली
लेकिन मेरी समझ की सच
हाँ
ऐसे पगलाने की पराकाष्ठा में
लिख रही होती हूँ
कविता
मेरे सकुशल साथियो!
इस दुनिया में पागल होने से सुन्दर चीज़
और क्या हो सकती है?