जब मैं पुरुष हूँ / रंजना जायसवाल
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो कतई जरूरी नहीं कि दिखूँ भी पुरूष की तरह
मसलन मेरी भुजाएँ बलिष्ठ, सीना चौड़ा
और कद ऊंचा हो
देह हो शक्ति -भरी इतनी
कि पछाड़ दूँ बाघ को
बाधा जतिन की तरह
रक्षा करूँ निर्बल-असहाय और स्त्रियों की
निभाऊँ मन बचन और कर्म से
किए गए वादों को
बस पुरूष योनि में जन्म लेना ही काफी है
पुरूष कहलाने के लिए
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो ड्रेस कोड लागू नहीं किया जा सकता
मुझ पर क्योंकि मैं ही बनाता हूँ ड्रेस कोड
वैसे बदन-उघाडू ड्रेसेज भी मैं ही बनाता हूँ
दरअसल अच्छी लगती हैं मुझे
सिर्फ घर की स्त्रियाँ ही ढँकी-मुँदी
बाकी तो कपड़ों में भी ‘न्यूड’ लगती हैं
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो क्यों करूँ व्रत,पालन करूँ परम्पराओं
और नियमों का
यह सब बनाया है मैंने सिर्फ स्त्रियों के लिए
ताकि बचे ही न पास उनके वक्त
और शक्ति इतनी कि बन सकें मस्तिष्क
देख सकें दुनिया देहरी के बाहर की
जान सकें देह का रहस्य
वरना खतरे में पड़ जाएगा पौरूष
भहरा जाएगी मर्दानगी की दीवार
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
और ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ सिद्धान्त से
दुनिया की हर सुंदर स्त्री मेरी भोग्या है
मैं क्रिएट करता हूँ
हालात और
समस्याएँ ऐसी-ऐसी
कि छूटे ही न कोई स्त्री
वैसे देता हूँ हद में रहने वालियों को
सुरक्षा... सम्मान... प्यार
और भी बहुत कुछ
पर हथेलियों से फिसल गयी स्त्री
होती है सिर्फ और सिर्फ ‘रंडी’मेरे लिए
दूभर कर देता हूँ उसका जीना
अपने बनाए समाज में
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
पाक हूँ
देह शुचिता का प्रश्न
मेरे नहीं
साथ है स्त्रियों के
जिन्हें बनाया है मैंने
काठ की हांडी
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो चाहिए मुझे स्त्रियाँ अकलंक
विवाह के लिए ही नहीं प्रेम के लिए भी
चाहता हूँ बाकी दुनिया जिंदा रहे
मेरी जूठन के भरोसे
मुझे कतई परवाह नहीं कि
स्त्री संतुष्ट होती है या नहीं मुझसे
मुझे गिनती पूरी करनी है
दर्ज कराना है ’पौरूष बुक’ में अपना नाम
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो स्त्री संपत्ति है मेरी
खरीदूँ, बेचूँ या बंधक रखूँ
मारूँ... जलाऊँ या नष्ट करूँ
वैसे भी इससे अधिक क्या उपयोग है
स्त्री का
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो साहित्य... संस्कृति... कला मेरी बपौती है
बड़े काम और बड़े पद जल-थल-नभ के
मेरे ही वश के हैं
क्या खाकर करेंगी स्त्रियाँ इन क्षेत्रों में काम
करेंगी तो हमारी कृपा से
गुजर कर देह के नीचे से
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो उम्र का बंधन नहीं मुझ पर
साठे पर पाठा होता हूँ
मुँह उठाए घुस सकता हूँ
जिस किसी खेत में
बड़ी उम्र में भी पसंद आ जाए अगर कोई कन्या
तो मान्य है मेरे लिए
कभी तप-बल से उसे युवती बना देता हूँ
कभी पुत्र से युवापन उधार माँग लेता हूँ
वैसे भी वैद्यों ने बना रखे हैं हजारों भस्म-चूर्ण
व शक्तिवर्धक औषधियाँ मेरे लिए
हाँ,स्त्री के लिए बनाई है मैंने सीमा उम्र की
क्योंकि स्त्री ही होती है बूढ़ी
पुरूष नहीं
मैं पुरूष हूँ और जब मैं पुरूष हूँ
तो हूँ सशक्त,समर्थ, सत्य और पूर्ण
ईश्वर हूँ
सम्पूर्ण संसार समाहित है मुझमें स्त्री भी,
सृजन से संहार तक करता हूँ मैं,
देवी और आसुरी सभी शक्तियाँ समाहित हैं मुझमें ही
निहित हैं
भूत वर्तमान भविष्य हूँ
समय हूँ... काल हूँ
मैं कुछ भी कर सकता हूँ
क्योंकि मैं स्त्री नहीं हूँ
और जब मैं स्त्री नहीं हूँ
तो कुछ भी नहीं है मेरी सोच से परे
अकरणीय कुछ भी
मैं पुरूष हूँ...