भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब मैं पैदा हुई ..... / हरकीरत हकीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धुंध के पल्ले में लिपटी
वो इक जालिम रात थी
जब मैं पैदा हुई
वो इक काली रात थी


चीखों से
तड़प उठी थी निर्जनता
हवा सनसनाती
अर्गला रही थी
अचानक मिट्टी की
कोख जली और
इक नार पैदा हुई ....


रंगों में
इक आग सी फ़ैल गई
बुलबुल कीरने<ref>विलाप</ref> पाने लगी
कब्र में सोये कंकाल
फड़फड़ा उठे ....
और मेरी माँ की आंखों में
एक निराश सी मुस्कुराहट
कांप गई थी ......


जब मैंने आँखें खोलीं
सपनों की पिटारी
जंजीरों में सजी थी
सामने ज़िन्दगी
मुँह-फाड़े
अपाहिज सी
खड़ी थी ......


इक हौल
छाती में उठा
चाँद ने भी
हौका भरा
और मैं ....
मिट्टी सी
खामोश हो गई ...


वो इक जालिम रात थी
जब मैं पैदा हुई
वो इक काली रात थी ....!!


शब्दार्थ
<references/>