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जब यह शीश टूटे / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
खिड़की के शीशे पर
टप-टप कर
बूंदें फिसलती रहीं
मैं तकता रहा
ख़ाली-ख़ाली आँखों से
समय जब काटने लगा
घड़ी में चाबी दे
उसे आगे खिसका दिया मैंने
वर्षों प्रतीक्षा की है
उस क्षण की
जब यह शीशा टूटे
और भिगो जाए
मेरे तपते मन को
शीशा टूटता नहीं
मैं तोड़ पाता नहीं
खिड़की के पर्दे गिरा
अंधेरा कर लेता हूँ कमरे में
टप-टप की आवाज़
फिर भी आती रहती है
मन को बाँधे रहती है