जब शब्द पत्थर से हुए / बुलाकी दास बावरा
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
उम्र ढोने के लिए
कुछ साँस की सौगात ले
सुर्ख सूखी रेत बैठे
चिन्ह से जज़्बात ले
मैं जिया हूँ किस तरह ये राज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
मौन हो कुछ बात हो,
वाचालता से क्षुब्ध हूँ
डर नहीं है साँझ का
मैं भोर से विक्षुब्ध हूँ
बिफरते आकाश में परवाज कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
मैं वही हूँ किन्तु मेरा,
वो नहीं चेहरा रहा,
दस्तकों पर दस्तकें थी,
किन्तु मैं बहरा रहा,
दहकते माहौल का अन्दाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
कौन जाने किस तरह से,
तय हुआ अब तक सफर,
कौन-सा वह आइना था,
जिसका मैं था रहगुज़र
द्वंद्व से व्याकुल समय का साज़ कैसे दूँ तुम्हे ?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ क़ैसे दूँ तुम्हे ?
प्यास से व्याकुल नदी के,
कुछ मुहाने पास है,
या समझ लो मेरे जग का
अनकहा इतिहास है,
कल तो कल है, कल का क्या? मैं 'आज' कैसे दूँ तुम्हे?
जब शब्द पत्थर से हुए, आवाज़ कैसे दूँ तुम्हे ?