भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब सजीले ख़िराम करते हैं / 'फ़ायज़' देहलवी
Kavita Kosh से
जब सजीले ख़िराम करते हैं
हर तरफ़ क़त्ल-ए-आम करते हैं
मुख दिखा छब बना लिबास सँवार
आशिकों को ग़ुलाम करते हैं
ये चकोरे मिल उस सिरीजन सूँ
रात दिन अपना काम करते हैं
यार को आशिक़ान-साहब-फ़न
एक देखे में राम करते हैं
गर्दिश-ए-चश्म सूँ सिरीजन सब
बज़्म में कार-ए-जाम करते हैं
ये नहीं नेक तौर ख़ूबाँ के
आशनाई को आम करते हैं
जी को करते हैं आशिक़ाँ तसलीम
जब वो हँस कर सलाम करते हैं
मुर्ग़-ए-दिल के शिकार करने कूँ
जुल्फ़ ओ काकुल को दाम करते हैं
शोख़ मेरा बुताँ में जब जावे
उस को अपना इमाम करते हैं
ख़ूब-रू आशना हैं ‘फाएज़’ के
मिल सबी राम राम करते हैं