भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब से जी भर तुमको देखा / विशाल समर्पित
Kavita Kosh से
जब से जी भर तुमको देखा
दृग संदल से महक रहे हैं
मन में जो कुछ भी है प्रियतम
मन करता है सब कह डालूँ
जगभर की परवाह छोड़कर
तुमको अपना रब कह डालूँ
मुझमें इतना हर्ष देखकर
वृक्षों पर खग चहक रहे हैं... (1)
लेकर मेरी कठिन परीक्षा
ईश्वर मुझसे छलकर बैठा
अम्बर का हर एक सितारा
रूप तुम्हारा धरकर बैठा
ऊपर से आभास हो रहा
रजनी के पति बहक रहे हैं... (2)
जब जी चाहे जी भर देखूँ
मुझको यह अधिकार बहुत है
मिलना इतना सरल नहीं है
दूरी का विस्तार बहुत है
पर मिलने की समिधा लेकर
अंदर अंदर दहक रहे हैं... (3)