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जब से तुम परदेश बसे / रजनी मोरवाल
Kavita Kosh से
स्वप्न सभी वीरान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।
परख लिया बैरी दुनिया को
दुःख में संगी कब कोई है
बरसों से बिरहा की बदली
सुधियों के आँगन रोई है,
रिश्ते भी अनजान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।
भीगा मन रो-रोकर बाँधे
पोर-पोर टूटन की डोरी,
सावन को दिखलाई है मैंने
तन की सब सीमाएँ कोरी,
सम्वेदन सुनसान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।
साँस-साँस पर नाम लिखा है
धड़कन भी नीलाम हुई है,
सिहरन की बाँहें अलसाईं
देखो अब तो शाम हुई है,
दर्द स्वयं पहचान हो गए
जब से तुम परदेश बसे हो।