जब से मैंने तुम्हारा चेहरा देखा है / अरविन्द घोष / कुमार मुकुल
जब से मैंने खिड़की पर तुम्हारा चेहरा देखा है, मधुर
प्यारा, एक जादू सा कर दिया है तूने मेरे हृदय पर, मेरे पांंवों पर
मेरा दिल तुम्हारे चेहरे के लिए , मेरे पांव तुम्हारी खिडकी के लिए अभी भी
जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे बांधे हुए हो
ओ सुंदर चुडैल, ओ निगाहों के निर्दोष घेरे
तुमने अचानक मुझे अपने उच्छवासों के बंधन में बांध दिया है
मैं धूप को देखता हूं, जैसे तुम्हारा विहंसता चेहरा हो
जब मैं एक फूल खरीदता हूं, यह तुम होती हो अपनी उज्ज्वल सुंदरता में
मैंने अपनी आत्मा को तुम्हारे सौंदर्यपाश से बचाने की कोशिश की
मैं और प्रयास नहीं करूंगा , इसे अब तुममें ही समर्पित होना है
अब मैं भी तुम्हें अपने बाहुपाश में लूंगा, ओ मेरी फाख्ता
और तुम्हारा भी प्यार की यातना और माधुर्य से परिचय कराउंगा
जब तूने अपनी खिडकी से बाहर आमद-रफत से भरे इस शहर पर निगाह डाली
तो क्या तुमने मेरा दिल लेने की बाबत सोचा, क्या दया आयी मुझ पर
लेकिन तुमने उसे देखा जिसने कभी पाप का मजाक उडाया है
और जीवन के साथ जुआ खेला है उसे पूरी तरह खो देने या पाने के लिए
मैं तुम्हें एक फडफडाते पक्षी की तरह तुम्हारे घोसले से दूर कर दूंगा
तुम प्यार के मजबूत घुटनों पर खडी होगी, अपने धवल उष्ण वक्षों के साथ घबरायी सी
तुम्हारी आंखें खुशी से बंद नहीं होंगी
फिर वह उज्ज्वल क्षण आएगा, खिलेगा एक और गुलाब।