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जब से वो आई है / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'

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जब से वो आई है,
मेरी सलामती की दुआओं में
मसरूफ रहती है,
ग़म तो हैं हज़ार अब भी
मेरे अंतर्मन के तहखाने में,
पर अब खुद की खातिर मुझे
खुदा के सजदे की जरूरत नहीं पड़ती,
क्षुधा तो पेट की बुझाता था
पहले भी हर दिन,
पर अब हर शाम-ओ- सहर
वो रसोई में
न जाने क्या पकाती है
जो अदहन के छलकने से
पहले मैं दौड़ता था लपक के,
जो दाल के जलने की खबर
पड़ोसी बताते थे ,
जो अधकच्ची आलू की सब्जी
बमुश्किल गुजरती थी हलक से
पर अब पतीले में
चावल संग इश्क उबलता है घर में!
शायद वो आटे संग
उल्फत का चोकर मिलाती है,
मेरे रसोई के जूठे बर्तन से भी
अब मुहब्बत की खुश्बू आती है!
हाँ ! कभी कभी देखा है उसकी बाहों पर
पूरियाँ तलते छिटके
तेल की तपिश के निशानों को,
न दर्द जुबान ही बयाँ करती है,
न वह छलकता है आँखों से,
वो फफोलों को आँचल से छुपाकर
बस मामूली बताती है!
अदने से सिनेमा के टिकट पर
चहक जाना- तो कभी सड़क किनारे
खड़े रेहड़ियों के गोलगप्पे का नमकीन पानी
उसकी जुबा से होकर गुज़र जाता है रूह तक!
और उसकी मासूमियत का
एक मंजर ये भी, कि
मुझ जैसी महज़ मामूली शख्सियत को
वो त्याग का समंदर बताती है,
वो कभी ओढ़कर मुझको रातों को
उन्नींद को तस्सली का गुमां कराती है
पर रात को भी जागकर चुपके से
कभी पीठ तो कभी माथे पर
थपकियां लगाती है,
कभी आँखें भर आएँ उसकी, तो
मेरे कांधे पर सर रखकर
सुकून से बिटिया बन जाती है,
कभी मेरे ज़ीस्त की बेचैनियों में
मेरा सर अपनी गोद में रखकर
वो माँ बन जाती है!
जब से वो आई है