जब / महादेवी वर्मा
नींद में सपना बन अज्ञात!
गुदगुदा जाते हो जब प्राण,
ज्ञात होता हँसने का मर्म
तभी तो पाती हूँ यह जान,
प्रथम छूकर किरणों की छांह
मुस्करातीं कलियाँ क्यों प्रात;
समीरण का छूकर चल छोर
लोटते क्यों हँस हँस कर पात!
प्रथम जब भर आतीं चुपचाप
मोतियों से आँखें नादान,
आँकती तब आँसू का मोल
तभी तो आ जाता यह ध्यान;
घुमड़ घिर क्यों रोते नवमेघ
रात बरसा जाती क्यों ओस,
पिघल क्यों हिम का उर अवदात
भरा करता सरिता के कोष।
मधुर अपना स्पन्दन का राग
मुझे प्रिय जब पड़ता पहिचान!
ढूँढती तब जग में संगीत
प्रथम होता उर में यह भान;
वीचियों पर गा करुण विहाग
सुनाता किसको पारावार;
पथिक सा भटका फिरता वात
लिए क्यों स्वरलहरी का भार!
हृदय में खिल कलिका सी चाह
दृगों को जब देती मधुदान,
छलक उठता पुलकों से गात
जान पाता तब मन अनजान;
गगन में हँसता देख मयंक
उमड़ती क्यों जलराशि अपार
पिघल चलते विधुमणि के प्राण
रश्मियाँ छूते ही सुकुमार।
देख वारिद की धूमिल छांह
शिखीशावक क्यों होता भ्रान्त;
शलभकुल निज ज्वाला से खेल
नहीं फिर भी क्यों होता श्रान्त!