जमाल-ए-यार को तरसूँ न वस्ल-ए-यार को तरसूँ
मेरे दुश्मन ही तरसें क्यूँ मैं उन के प्यार को तरसूँ
मेरे सीने में क्यूँ हर दम घड़ी सी एक चलती है
शबाना रोज़ ये बंदी ख़ुदाया तुझ से कहती है
कोई साअत कोई लम्हा के कोई दिन गुज़र जाए
ये अपनी दूरयाँ कम हों क़राबत और बढ़ जाए
बरस यूँ ही गुज़रते हैं बस इतना चाहती हूँ मैं
मेरे मालिक मेरे मौला से मिलना चाहती हूँ मैं