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जमीं मिले तो कभी आसमाँ की सोचेंगे / गोविन्द राकेश
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जमीं मिले तो कभी आसमाँ की सोचेंगे
निभा चलें जो यहाँ उस जहाँ की सोचेंगे
बहुत उमीद थी छत मिल ही जायगी लेकिन
मिटेगी भूख अगर तब मकाँ की सोचेंगे
नहीं नसीब कहीं साथ अब निभाता है
बचे ये जान कभी फिर जुबाँ की सोचंेगे
अभी तो शाख़ पर कोई कली नहीं दिखती
अगर बहार न आयी ख़िज़ाँ की सोचेंगे
हमें ये पंख मिले हैं बड़ी ही मुश्किल से
फ़लक खंगाल तो लें कहकशाँ की सोचेंगे