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जमीं रो रही, आसमाँ रो रहा है / विमल राजस्थानी

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जमीं रो रही, आसमाँ रो रहा है
यह क्या हो रहा है, यह क्या हो रहा है

शरम से हिमालय की गर्दन झुकी है
दिशाओं की नजरें झुकी जा रही है
पुती चेहरे पर है दिन के सियाही
औ’ मेहताब की लौ चुकी जा रही है

सितारों की आँखों में झलके हैं आँसू
व्यथा से समुन्दर, सुबक, रो रहा है

हजारों ही लालों को जंगे-जहद में
यूँ ही हम तो पहले से ही खो चुके हैं
कि सीनों पै पत्थर धरे, गम में डूबे,
शहीदों की मैयत पे हम रो चुके हैं

जुदाई से उन नौनिहालों की अब तक
कलेजा वतन का फटा जा रहा है

मचल ही गये कुछ जवाँ तो हुआ क्या ?
कलेजों पै गोली चलायी गयी क्यों ?
चमन के उन खिलते-से फूलों के ऊपर
दो उत्तर कि बिजली गिरायी गयी क्यों ?

लहू से रँगे हाथ किसने, बता दो
वो पापी, कमीना, कसाई कहाँ है ?

ओ जालिम ! क्या तुमको दया भी न आयी ?
निहत्थों पै तुमने जो गोली चलायी !
मसल रख दिये फूल तुमने चमन के
कि माथे पै कालिख लगा दी वतन के

यह सुलगी है बदले की ज्वाला भयंकर
कि घर-घर में इसका धुँआ छा रहा है