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जमुना बाई / राम सेंगर

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इकली है तो क्या ,
प्रसन्नमन
जीती जमुना बाई ।

मुँह अन्धियारे
नित्यकर्म से फ़ारिग होकर
मोरी धोई
घर का कोना-कोना झारा ।
हौदी भरी
घिनोंची पर दो घड़े धर दिए
चूल्हे की सब राख बुहारी
पोता मारा ।
कामकाज की सूने घर में
मानो अलख जगाई ।

गोबर-कूड़ा कर
खूँटे पर गैया बाँधी
हरियाई डाली , सानी दी,
दूध निकाला ।
हाँड़ी चढ़ा बरोसी पर
चूल्हा सुलगाया ।
झबरी कुतिया को
रोटी का टुकड़ा डाला ।
गरमागरम चाय से सुस्ती
कोसों दूर भगाई ।

चकिया झारी
बासन माँजे, चौका लीपा
न्हा धोकर के
गँगाजी का दिया जलाया ।
चाची ताई
अम्मा दादी कहने वाली
छई छापरी आईं
उनका मन बहलाया ।
भूख लगी तो मीड़ मठा में
बासी रोटी खाई ।

हर उधेड़बुन से
निचोड़ लेती रस चुपके
अज़ब कमेरी
हाथ मचल उठते घरी-घरी ।
थकती नहीं
मुहल्ले-भर के टल्ले लादे
जाने क्या करती-फिरती
दिन-भर उठा-धरी ।
जान गई है ख़ुश रहने से
जमे न मन पर काई ।

छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा
निबल सहारा
कभी न बैठी
ले दुखदायी रामकहानी ।
कन्धा देने
क्यों भविष्य की ओर निहारे
अपनी धुन की
ठहरी पूरी औघड़दानी ।
सोच न सपना,जाने लेकिन,
जीवन की सच्चाई ।