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जयवह जँ मुहँमोरि सजनि गय / कालीकान्त झा ‘बूच’

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जयवह जँ मुहँमोरि सजनि गय!
कतबो विकल विह्वल भ' रहबह
अयबह तँ कि बहोरि सजनि गय...
वर शीतल सुकुमार मानि क'
रखलह सुमुखि परवानक पट मे
कहियो प्रेम पहाड़ फानि क'
बहि जयबह मसान मरूघर मे
वक्षस्थलक विशाल बान्ह केँ
दोमि दोमि झकझोरि सजनि गय....

चानन वेखक वाहुपाश ल'
शांगह मे सिरिषक सुवास ल'
दोना मे दू दू अकाश फल
तरहथ मे मह-मह पलाश ल'
तोँ ऱहवह हम शालिग्राम केँ
ल' चलवह हिलकोरि सजनि गय...

वूझि सूझि क' सांठह संवल
नहि चाही नोरक बोड़ल जल
तपित भावक श्रृंग चुआवह
भरह विवेक विचारक परिमल
कपटक पाँक छलक सिकता के
कातहि काते छोड़ि सजनि गय...