भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जय तुम्हारी देख भी ली / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Kavita Kosh से
जय तुम्हारी देख भी ली
रूप की गुण की, रसीली ।
वृद्ध हूँ मैं, वृद्ध की क्या,
साधना की, सिद्धी की क्या,
खिल चुका है फूल मेरा,
पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली ।
चढ़ी थी जो आँख मेरी,
बज रही थी जहाँ भेरी,
वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है ।
जीर्ण है वह आज तीली ।
आग सारी फुक चुकी है,
रागिनी वह रुक चुकी है,
स्मरण में आज जीवन,
मृत्यु की है रेख नीली ।