भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जरलोॅ कपार छै / कस्तूरी झा 'कोकिल'
Kavita Kosh से
अदरा आय ऐ लोॅ छै,
बूंदी बूंदी भेलोॅ छै।
तोरा नैं रहला सें
मौॅन ठिठुवैलोॅ छै।
पूड़ी खीर देतॅै केॅ
तोंरा रंग बनैतै केॅ?
एकटा लेॅ कहतै केॅ?
मालदह भरमार छै,
सस्ता बाजार छै।
तोरा बिना स्वाद नैं,
जरलोॅ कपार छै।
दलपूड़ी याद छै,
सुन्दर सबाद छै।
ऊरंग बनैते केॅ?
लोहिया सें निकालनेॅ जा,
फूकी-फूकी खौनें जा।
आबे नैं कहने जा
फेरू-फेरू लेने जा।
करेजेॅ खखोरै छै।
बदरा बौखैलोॅ छै।
तोरा नै रहला सें
मोनें टौएैलोॅ छै
कहाँ जाँव की करौं
जरलोॅ कपार छै।
तोरा बिना सच्चे हे,
दुनिया अनहार छै।
22/06/15 दोपहर 1.30 बजे