जरायु / श्रीनिवास श्रीकांत
टूटी पायदानों पर खड़े हैं ज़रथुश्त
जंगल से युद्ध् का कोई समाचार नही आया
सूरज का आखिरी बेड़ा भी चल दिया
रात के पक्षी की चहक के साथ-साथ
बचपन में देखा था समुद्र तट
रहस्यमयी
भूरा
जादुई
दुनिया
स्वप्न
और नींद में घूमता
शहर-दर-शहर आईना
कभी बरामदे में रचाता धूप
कभी अकारण लोप होता
रात को प्लेटिनम उजाले की ओट
तापमान पहुंचता है
जमाव-बिन्दु तक
और आदमी
नींद और नींद की अंतिम चीत्कार तक
मगर चीत्कार तो है
विस्मय में कुरेदा भय
शिला पर शिला का असाध्य दबाव
मरे हुए जीवन का फ़्लैश बैक
उभरते हैं स्मृतियों के टुकड़े
बेततरतीब
जच्चाखाने की सीढ़ियों पर
टूटती है धूप
मदरसों में पक्षी रटते हैं पहाड़े
दिन है मकर रेखा के आस-पास
मन बना पतझर रंगों का छायाकार
रेंगता है स्मृतियों का सर्प
पिता के कंधों पर
बालक उसी क्षण हो जाता है गूँगा
अक्षि गोलकों में
करवट लेता
जरायु
देह शोष
झुकी कमर
ढीली चमड़ी का बोझ
कड़कती धूप का अन्धापा
ऊपर से चाबुक की मार
टूटते हैं एक साथ
कई काँच
बालक के ज़हन में
बिखरते हैं दृष्य
दृष्य जो थे
पालतू गाय के थन
दृष्य जो बने स्वप्न बाण बेसबब
बेसब रचाते रहे माया
बेसबब पीछा करते रहे
फुटपाथों पर
घोड़ों की टाप के साथ-साथ
खिड़कियों से बुलाते रहे हाथ
माया और ब्रह्म
हैं दोनों निराधार
निराधार प्रत्यंचा के बाण
कूप में डूबता
धूप का जर शरीर
कुण्डलीनी में खींचता कमान
सोचता बालक का आदमकद
कूँएं में बिम्ब झाँकता जरायु
सोचते पायदानों पर खड़े ज़रथुश्त
दीर्घायु भव
कहा था पुरोहित ने
याज्ञवल्क की दहलीज़ पर
और बाहर भविष्य का बिलाव
खोज रहा था अपना शिकार
व्रत्रासुर बैठा था बरगद की टहनी पर
नीचे जल रहा था अलाव
जरायु भव
कहा इन्द्र ने अरिष्टनेमी की
समाधि तोड़ते
बालक ने नहीं सुना
सुना नाव में बैठे ज़रथुश्त ने
कॉलेज के कॉरिडोर
स्कूल के बरामदे
अँधेरों से भर गये
किराये के मकानों में
खुलते रहे ज़च्चाघर
सिकुड़ते गये हम सब
गुज़रते गये ज़हन से
शहर दर शहर
भूरे बादलों के
बेमुकाम लश्कर
शहरों में कन्याएं थीं
और उनके साथ
पीढ़ियों के बंजारे हम
हम
आदमशाहियों के सिमटते क्षितिज
फ़ारस के ताबूतों पर
चिपकी हुई चमचम वाले
अंतहीन नज़्ज़ारे
कोलाहल
सन्नाटे
कोहराम
इतिहास जब मर रहा था
फूलों के बोझ से दबा सर्प शैयाओं वाले टमटम
पहियों के नीचे
हम मर रहे थे अपने अपने घरों में
खा रहे थे हवा
पी रहे थे पानी
और हमारी प्रेमिकाएं थीं
चक्की पीसने की तैयारी में
इन्द्र से व्रत्रासुर
और अरिष्टनेमी से याज्ञवल्क तक
ज़िन्दगी
न फूहड़ औरत का दर्प है
न पराजित होने का तर्क
है कूप में डूबता
जरायु का देह ज्ञान वह
धूप का जर शरीर
पागल प्रेमिका दिल फ़रेब कहती थी
मैं पिरामिड से उठकर आयी हूँ
और तब मुझे लगा था
वह सुरंग है
कब्र -दर-कब्र जन्म लेती हुई
लेकिन फिर क्या हुआ
कि कुछ रोमाण्टिक पत्नियाँ
हुईं फ्रायड् का शिकार
मर्द झगड़ते रहे घरों में
बालकों के ज़हन में
चलता रहा आरा
लग गयी देश की नाम पर पीठ
इतवारी लाल की
और बनवारी लाल
आ गये रंभ-उर्वशियों के सभा मण्डप में
हृदय रोग से मरने लगे नायक
ऐपिलिप्सी से नायिकाएं
दिवास्वप्नों में बदल गये दिन
जिस्मानी चेष्टाओं में मुक्तिसंघर्ष
कुछ धंसी छातियाँ लिए
घुसे कारकुन-घरों में
और वहां से कभी नहीं लौटे
कंधे उठाते रहे
निष्क्रिय ईमारतों का बोझ
कछुए चलते रहे पेट के बल
आँखों की जगह झाँकते रहे दो गिरगिट
इमारतों पर नारे लगाना और बात है
इबारतें घड़ना और बात
इबारतों के नहीं होते पर
जो हमें उड़ा ले जाएं वक्त के साथ-साथ
सुना है वक़्त के साथ-साथ बढ़ता है अँधेरा
वक़्त आने पर बदलता है
चमग़ादड़ अपने पर
वक्त के साथ-साथ उतरती है
साँप की कैंचुल
सब कुछ होता है
वक़्त के साथ-साथ
लेकिन वक्त तो हो गया है
शून्य में विलीन
चाहे मैदानों में उतरती रहे दूब
चाहे घूमता रहे आदमी
अपनी ही नाभि के गिर्द
न कारकुन-घरों से
निकलेंगे वो लोग
न रोबो पकड़ पायेंगे
रेइण्डियर गाड़ियों में लौटते
देवताओं के शव
सर्द हवा लाती है
वृक्ष की मौत का समाचार
जंगल से युद्ध का
कोई समाचार नहीं आया
सूरज का आख़िरी बेड़ा भी चल दिया
रात के पक्षी की चहक के साथ-साथ