भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जरा सोच अपनी गहन कर रही हूँ / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
जरा सोच अपनी गहन कर रही हूँ ।
नयी गीतिका का सृजन कर रही हूँ।।
जहाँ हों न आँसू न हो पीर कोई
सृजित ऐसा वातावरण कर रही हूँ।।
मिटाना है आतंक की आँधियों को
मैं सामर्थ्य का आकलन कर रही हूँ।।
बचाता रहे नाश से जो जगत को
उसी भाव को आवरण कर रही हूँ।।
मलिनता मिटे स्वच्छ जल हो सुधा सम
प्रवहमान गंगा जमन कर रही हूँ।।
घृणा की फसल को नहीं कोई बोये
जगत प्यार की अंजुमन कर रही हूँ।।
बनाई है जिस ने अनोखी ये दुनियाँ
विधाता को मैं उस नमन कर रही हूँ।।
बदल वस्त्र जैसे चला जाये कोई
सुख जिंदगी से मरण कर रही हूँ।।
परब्रह्म को ढूंढ़ती हूँ स्वयं में
स्वयं में ही जैसे भ्रमण कर रही हूँ।।