जरिबो पावक मांहि (कविता) / आनंद कुमार द्विवेदी
प्रेमी कहता है
एक आस टूटी
ज्ञानी कहता है
एक बंधन टूटा
ईश्वर खड़ा हो गया है आकर ठीक उस जगह
कल तक तुम जहाँ खड़ी थी
चीड़ के पेड़ की तरह,
प्रेमी कहता है
खो गया सब कुछ
ईश्वर केवल रिक्त स्थान की पूर्ति का भ्रम है
ज्ञानी कहता है
मिल गया है वह सबकुछ
जिसकी पूर्ति भ्रमों से रिक्त होकर ही होती है
मेरे भीतर से एक नन्हा शिशु निकलकर
पकड़ लेता है ऊँगली
तेरे उसी प्रेमी की
जिसने हमेशा तुझे ही चुना
ईश्वर के मुकाबले
मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं
इसीलिये बढ़ता हूँ
ईश्वर की तरफ
आखिर मुझे और भी बहुत कुछ देखना है
जीवन से लेकर मृत्यु तक
ईश्वर बहुत अच्छा व्यवस्थापक है
व्यवस्था में ही सबका हित है
जान है तो जहान है
फिर भले ही ये जान और ये जहान
दोनों दो कौड़ी के हों
कमजोर लोग
नहीं कर सकते ...कभी
प्रेम
प्रेम आक्सीजन की जगह भरता है साँसों में
साहस
और कार्बन डाई आक्साइड की जगह
बाहर छोड़ता है
विद्रोह !
अंततः
ज्ञानी सुख को प्राप्त होता है
और प्रेमी
दाह को !