जर्णा का अंग / कबीर
भारी कहौं तो बहु डरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणौं राम कूं, नैनूं कबहूँ न दीठ ॥1॥
भावार्थ - अपने राम को मैं यदि भारी कहता हूँ, तो डर लगता है, इसलिए कि कितना भारी है वह । और, उसे हलका कहता हूँ तो यह झूठ होगा । मैं क्या जानूँ उसे कि वह कैसा है, इन आँखों से तो उसे कभी देखा नहीं ।सचमुच वह अनिर्वचनीय है, वाणी की पहुँच नहीं उस तक ।
दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाय ।
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरषि-हरषि गुण गाइ ॥2॥
भावार्थ - उसे यदि देखा भी है, तो वर्णन कैसे करूँ उसका ? वर्णन करता हूँ तो कौन विश्वास करेगा ? हरि जैसा है, वैसा है । तू तो आनन्द में मग्न होकर उसके गुण गाता रह वर्णन के ऊहापोह में मन को न पड़ने दे ।
पहुँचेंगे तब कहैंगे ,उमड़ैंगे उस ठांइ ।
अजहूँ बेरा समंद मैं, बोलि बिगूचैं कांइ ॥3॥
भावार्थ - जब उस ठौर पर पहुँच जायंगे, तब देखेंगे कि क्या कहना है, अभी तो इतना ही कि वहाँ आनन्द-ही-आनन्द उमड़ेगा, और उसमें यह मन खूब खेलेगा। जबकि बेड़ा बीच समुद्र में है, तब व्यर्थ बोल-बोलकर क्यों किसी को दुविधा में डाला जाय कि - -उस पार हम पहुँच गये हैं !