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जलते प्रश्न / कविता भट्ट

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क्रूर प्रतिशोध प्रकृति का था या,
भ्रष्ट मानव की धृष्टता का फल?
श्रद्धा-विश्वास पर कुठाराघात या,
मानव मृगतृष्णाओं का दल-दल?
जलते विचारों ने प्रश्नों का,
रूप कर लिया था धारण।
किन्तु उनकी बुद्धि-शुद्धि क्या?
जो विराज रहे थे सिंहासन।
डोल रहे अब भी श्वानों से,
बर्फ में दबे शव नोंच-खाने को।
मानव ही दानव बन बैठा,
निजबंधुओं के अस्थि-पंजर चबाने को।
कितनी भूख-कितनी प्यास है,
जो कभी भी मिटती ही नहीं।
कितनी छल-कपट की दीवारें,
जो आपदाओं से भी ढहती नहीं।
सब बहा ले गया पानी था,
जीवन-आशा-विश्वास-इच्छा के स्वर्णमहल।
किन्तु एक भी पत्थर न हिला,
भ्रष्टता-महल दृढ़ खड़ा अब भी प्रबल।
पेट अपना और कागजों का भरने वाले,
कहते काम हमने सब कुछ कर डाले।
जिनके कुछ सपने पानी ने बहाये,
उनकी बही आशाओं के कौन रखवाले।
उन्हीं के कुछ सपने बर्फ ने दबाये,
और कुछ सर्द हवाओं ने मृत कर डाले।
ऐसा नहीं कि सिंहासन वाले फिर नहीं आएँगे
आएँगें बर्फ में दबे सपनों को कचोटने।
और सर्द हवाओं से बेघरों को लगे
रिसते-दुखते घावों पर नमक बुरकने।