भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जलते रहना / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !
जब तक प्राची में ऊषा की किरणें
बिखरा जाएँ नव-आलोक तिमिर में,
विहगों की पाँतें उड़ने लग जाएँ
इस उज्ज्वल खिलते सूने अम्बर में,
तब तक तुम रह-रह कर जलते रहना !
तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !
जैसे पानी के आने से पहले
दिन की तेज़ चमक धुँधली पड़ जाती,
वेग पवन के आते स्वर सर-सर कर
फिर भू सुख जीवन शीतलता पाती,
गति ले वैसी ही तुम जलते रहना !
तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !