जलते हुए शहर की कोई कैफ़ियत नहीं / राम मेश्राम
जलते हुए शहर की कोई कैफ़ियत नहीं
वहशत के देवता की कोई शख्सियत नहीं
हर लम्हा दिल के ख़ून में डूबी निगाह में
बहते हुए लहू की कोई अहमियत नहीं
वह कत्ले-आम था कि महज़ इन्तकाम था
ख़बरों के पार सच की बहुत हैसियत नहीं
अम्नो-अमन के ढोल का हुल्लड है दूर-दूर
असली अमन की घर में कोई ख़ैरियत नहीं
बेशक शहीद हो गया एहसान-जाफ़री
रोई ख़ुदा के नाम पर इन्सानियत नहीं
क्या चमचमा रहा है शराफ़त का हर बयान
जिसकी सचाइयों में कहीं असलियत नहीं?
क्यों शाइरी से नींद सियासत की हो हराम
शायर के ख्वाब में तो कोई सल्तनत नहीं
दिन-रात की गरज़ के तकाजे का मैं गुलाम
मेरा वजूद भी तो मेरी मिल्कियत नहीं
तारीक-शब में जलती हुई अपनी रूह से
हैरान हूँ कि मेरी कोई वाक्फ़ियत नहीं