जलवा-ए-हुस्न तो जिगर तक है
हम तो समझे थे बस नज़र तक है
चाह बाक़ी नहीं उमीदों की
ज़िन्दगी बेसबब सहर तक है
फिर मिलें हम, मिलें, मिलें न मिलें
"साथ अपना तो बस सफ़र तक है"
ग़ैब का इल्म कब था बाबर को
मुग़'लिया सल्तनत जफ़र तक है
कैसे मुफ़लिस ने ब्याह दी बेटी
किसको मालूम गिरवी घर तक है
शोर घर में बहुत है टी वी का
बैठना फिर भी दर्दे-सर तक है
घर को देखा जो आग की ज़द में
सहमा आँगन का ये शजर तक है
उसका जलवा 'रक़ीब' है हरसू
यह न समझो फ़क़त क़मर तक है