Last modified on 16 फ़रवरी 2025, at 22:54

जला रही समाज को पड़ोस की अगन / राकेश कुमार

जला रही समाज को पड़ोस की अगन ।
धुँआ न आग कहीं मगर बहुत जलन ।

कहाँ गयी मनुष्य की तमाम वेदना ?
जली नहीं चिता अभी चुरा लिए कफन।

झलक रही निगाह में दरिंदगी यहाँ,
शिकार हो रहीं अनेक माँ- सुता - बहन ।

गया समय कटा दिए ख़ुशी - ख़ुशी गला,
मगर न टूटने दिया लिया हुआ वचन ।

करें विचार बैठकर तमाम शक्तियाँ,
बढ़े उदात्त भावना, बचा रहे वतन ।