भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जले अंगार वत / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
क्रोध से मन यों जले अंगार वत ।
व्यर्थ जीवन को करे जो खार वत ।
नैन करुणा से भरे पर दुख सहज,
स्नेह अंतस से उठे बस ज्वार वत ।
काल की गणना करें यदि धर्म पर,
संत बहुधा हैं मिले आधार वत ।
कंटकों में भी खिले जो फूल सम,
जो न जीते है कभी भी भार वत ।
याद आते दिन वही जब प्रेम के
श्वांस में सरगम भरे शृंगार वत ।