भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जल्दी सें अईहोॅ / गुरेश मोहन घोष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँझोॅ के बेरा में, हम्में अकेली छी,
नद्दी किनारा में कुच्छु लेॅ ऐली छी-
तोहंे खाड़ोॅ यहाँ- आ की करै छोॅ?
हमरा नै छेड़ोॅ बाँही धरै छोॅ!

हरो तेॅ जोतै छै, ठामैं तेॅ बाबू,
हल्ला की करभौ? मोॅन करोॅ काबू।
लगोॅ में खाड़ोॅ छोॅ मनों सरमाय छै,
देखै छौ मैय्या पानी नै जाय छेॅ।

सुनी लेॅ बाबूजी! भागिहोॅ तों पीछू,
गुनी लेॅ हपरोॅ मनोॅ में कुछु।
हमरोॅ तेॅ मोॅन छै बनौं दुलहनियाँ,
तोहें तेॅ बाभन, हमें हरिजनियाँ।

हिम्मत नै होथौं मड़बा सजाय के,
लानै के दोलियो कंगन गढ़ाय के!
साड़ी रंगाय केॅ चोली सिलाबोॅ जी,
महलोॅ सें साजी मड़ैया तक आबोॅ जी।

रानी बनाबोॅ तेॅ सभ्भे छै ठिक्के जी,
मने बहलाबोॅ तेॅ सभ्भे छै फिक्के जी!
हमरा तेॅ मोॅन छै तौरै संग जाय के-
तोरा तेॅ डोॅर छौं बाप-माय-भाय के!

हुनकै तों साथ दौं, जात-पात मानोॅ जी,
हमरै सुरतिया में रात दिन कानोॅ जी!
इखनी तो भागोॅ, विचारोॅ केॅ थैहियोॅ,
कुछु ऊपर उठी केॅ तों जल्दी सें अईहोॅ।