जल्वा कहाँ कि जोरे नजर आज़मायें हम / नज़ीर बनारसी
जल्वा कहाँ कि जोरे नजर <ref>दृष्टि की शक्ति</ref> आजमायें हम
पर्दा उठायें वो तो नजर भी उठायें हम
ऐ जाने इन्तिजार <ref>प्रेयसी की प्रतीक्षा में बीतने वाला समय</ref> कोई ऐसी शक्ल भी
हर आने वाले पर तिरा धोका न खायें हम
आँखों की नींद दोनों तरह से हराम है
उस बेवफा को याद करें या भुलायें हम
है पीरे मैकदा <ref>शराबखाने के बुज़र्ग, शराबियों के उस्ताद</ref> भी मौजन <ref>मस्जिद में प्रार्थना करने वाला</ref> भी मह्वे ख्वाब <ref>सपने में गुम</ref>
ढलती है रात ऐसे में किसको जगायें हम
मस्जिद का दर ीाीबन्द दरे मैकदा भी बन्द
किस दर पे जायें कौन सा दर खटखटायें हम
हल्का करें तो कैसे करें दिल के बोझ को
दस्ते दुआ <ref>दुआ का हाथ</ref> उठायें कि सागर उठायें हम
पहुँचेंगे मैकदे में तो ढालेंगे बेहिसाब
मस्जिद में जायेंगे तो गिनेंगे खतायें हम
वो शामें मैकदा <ref>शराबखाने की शाम</ref> हो कि सुबहे हरम <ref>मन्दिर की सुबह</ref> ’नजीर’
लेने लगे हैं दोनों के सर की बलायें हम