भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जल गहरे नापते मछेरे / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
सागर के गहरे जल
नापते मछेरे
साँसों के आसपास रेतीले डेरे
पालों में भरी हवा
किस तरह पुकारे
ड़ूब गये सूरज के
पिछले उजियारे
बूढ़ी चट्टानों पर रातों के फेरे
लहरों के उजले पल
रह गये किनारे
नौकाएँ खोज रहीं
अँधे पखवारे
बैठे हैं द्वीपों पर मुँह-ढँके अँधेरे
सोच रहे डरे डाँड़
टूटी पतवारें
अपना यह कटा जाल
किस जगह उतारें
मछली के छल देखो - खा गई सबेरे