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जल प्रलय में / साधना जोशी
Kavita Kosh से
नामों निंषा मिट गया है,
इस जल प्रलय में,
जन-धन का ।
कभी पुस्तकों में पढा था,
कि प्रलय होता है ।
आज अश्रु बहाते हुये,
नयनों ने देखा है ।
इमारतों को खण्डहरों में
बदलते ।
मौत से जीवन की,
भीख मांगते गिड़-गिड़ाते,
दो पल का जीवन,
उधार मांगते हुये ।
कई अधूरे कार्य,
आधी आषायें, उमंगे,
अदखुले नयनों में,
तड़पते सपने ।
खुषियों की भीख,
माँगने तो ही गये थे ।
उसकी इतनी बड़ी,
सजा मिली ।
कि जीवन की खुषियां मिट गयी,
इस जल प्रलय में ।
प्रकृति की सुन्दरता,
को निहारने चले थे ।
अपने अलिषान आषियानों से,
मौत ने क्यों? दहाड़ते हुये,
जकड़ लिया अपने,
विकराल में आगोष में ।