भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जल भीनी प्यास / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
तिल-तिल कर परने ने भरमाया
द्वार, दिया वचन तो नहीं आया ।
बड़ी-बड़ी परछाई छोटी हो कर फैली
रेशे-रेशे टूटी दृष्टि-अरगनी मैली
अँजुरी भर रंग पी गई छाया
टूटे विश्वासों का नीलापन गहराया ।
जल-भीनी प्यास कमल पंखुरी-सी कुम्हलाई
तुलसी चौरे वाली रोशनी नहीं भायी
थाल भरा गीत रहा अनगाया
तिनके-तिनके मन को साँसों ने छितराया ।