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जवानी बुढ़ापे की लड़ाई / नज़ीर अकबराबादी

जहां में यारो खु़दा की भी क्या खु़दाई है।
कि हर किसी को तकब्बुर<ref>घमंड</ref> है, खु़दनुमाई<ref>आत्म-प्रदर्शन</ref> है।
इधर जवानी बुढ़ापे पे चढ़ के आई है।
उधर बुढ़ापे की उस पर हुई चढ़ाई है।
अजब जवानी, बुढ़ापे की अब लड़ाई है॥1॥

जवानी अपनी जवानी में हो रही सरशार<ref>मस्त</ref>।
बुढ़ापा अपने बुढ़ापे में दम रहा है मार।
हुए हैं दोनों जो लड़ने के वास्ते तैयार।
इधर जवानी ने खींची है तैश<ref>क्रोध</ref> से तलवार।
बुढ़ापे ने भी उधर लाठी एक उठाई है॥2॥

इधर है तीर का क़ामत<ref>शरीर, लम्बा डील डौल</ref> उधर वह पीठ कमां<ref>धनुष की तरह टेढ़ी</ref>।
उधर वह टेढ़ा बदन और इधर अकड़ के निशां।
जवानी कहती है बढ़ करके सुन बुढ़ापे मियां।
कि तेरी ख़ैर इसी में है, चल सरक इस आं।
वगरना<ref>अन्यथा, नहीं तो</ref> तेरी अजल<ref>मौत</ref> मेरे हाथ आई है॥3॥

मैं आज वह हूं कि रुस्तम को खड़खड़ा डालंू।
पहाड़ होवे तो एकदम में हिल हिला डालूं।
दरख़्त जड़ से उखाडूं ज़मीं हिला डालूं।
अभी कहे तो तेरी धज्जियां उड़ा डालूं।
कि मुझको ज़ोर की, कु़ब्बत<ref>ताकत, शक्ति</ref> की बादशाई है॥4॥

कहा बुढ़ापे ने गर तुझमें ज़ोर है बच्चा।
तो हां जी, देखें हमारे तू समने आजा।
अगरचे<ref>यद्यपि</ref> ज़ोर हमारे नहीं है तन में रहा।
मसूड़ों से ही तेरी हड्डियों को डालूं चबा।
न हम से लड़ कि इसी में तेरी भलाई है॥5॥

अगरचे तू है नया, हम पुराने हैं लेकिन।
नया है नौ ही दिन आखि़र पुराना है सौ दिन।
हज़ार गो कि तेरा ज़ोर पर चढ़ा है सिन<ref>अवस्था, उम्र</ref>।
पै हम न छोड़ें तेरे कान अब मड़ोड़े बिन।
कि तूने आके बहुत धूम यां मचाई है॥6॥

कहा जवानी ने तेरा तो अब है क्या अहवाल।
तू मेरे कान मड़ोड़े कहां यह तेरी मज़ाल।
न तेरे पास तमंचा न तीर, सेफ़ न ढाल।
अभी घड़ी में बिखरता फिरेगा एक एक बाल।
यह डाढ़ी तूने जो मुद्दत में अब बढ़ाई है॥7॥

कहा बुढ़ापे ने सुनकर कि तू अगर है पहाड़।
तो हम भी सूख के झड़बेरी<ref>जंगली बेर</ref> के हुए हैं झाड़।
अभी कहे तो तेरे कपड़े लत्ते डालें फाड़।
ज़रा सी बात में एकदम के बीच लेवें उखाड़।
हर एक मूंछ यह तेरी जो ताव खाई है॥8॥

यह सुनके बोली जवानी कि चल, न कह तू बात।
अभी जो आन के मारूँ तेरी कमर में लात।
कहीं हो पांव, कहीं सर, कहीं पड़ा हो हात।
जिसे तू जीना समझता है, और ख़ुशी की बात।
वह तेरा जीना नहीं है वह बेहयाई है॥9॥

यह सुनके बोला बुढ़ापा कि तूने झूठ कहा।
जो पूछे सच तो हमीं को मज़ा है जीने का।
शराब हो जो पुरानी तो उड़ चले है नशा।
पुराने जब हुए चावल तो है उन्हीं में मज़ा।
क़दीम<ref>पुरानी</ref> है यह मसल<ref>कहावत, लोकोक्ति</ref> हमने क्या बनाई है॥10॥

तेरी तो ख़ल्क़ में है चार दिन की सबको चाह।
जहां तू हो चुकी फिर बस वहीं है हाल तबाह।
हमीं हैं वह कि करें हैं तमाम उम्र निबाह।
तू आप ही देख गिरेबा<ref>कुर्त्ते कमीज आदि का गला</ref> में डाल कर मुंह आह<ref>अपनी बुराइयों पर स्वयं विचार करना</ref>।
कि अब है किस में वफ़ा<ref>स्वामी या मित्र का तन, मन, धन से साथ देना</ref> किस में बेवफ़ाई<ref>दगाबाज़ी, वादा खिलाफी</ref> है॥11॥

जवानी जब तो यह बोली बुढ़ापे से सुनकर।
तेरी वफ़ा से मेरी बेवफ़ाई है बेहतर।
मैं जब तलक हूं, बहारें मजे़ हैं सरतासर<ref>आदि से अन्त तक</ref>।
जो सल्तनत हो घड़ी भर की तो भी है खु़श्तर<ref>बहुत अच्छी</ref>।
मजे़ तो लूट लिये गो कि फिर गदाई<ref>फ़क़ीरी</ref> है॥12॥

यह सुनके बोला बुढ़ापा वह सल्तनत है क्या।
कि जिसके साथ लगा हो ज़वाल<ref>पतन, अवनति</ref> का धड़का।
हमें मिली वह बुजुर्गी की मंजिलत<ref>आदर, सत्कार</ref> इस जा।
कि जब तलक हैं रहेंगी हमारे साथ सदा।
खु़दा ने ऐसी हमें दौलत अब दिलाई है॥13॥

कहा जवानी ने चल झूटी अब न कर तकरार<ref>झगड़ा</ref>।
मेरे तो वास्ते ऐशो तरब<ref>आनन्द, हर्षोल्लास</ref> है बाग़ो बहार।
शराब नाच मजे गुलबदन<ref>फूल जैसे शरीर वाले</ref> गले में हार।
तेरी ख़राबी यह देखी है हमने कितनी बार।
के तूने हर कहीं ज़िल्लत<ref>ख़्वारी, अपमान</ref> ही जाके पाई है॥14॥

मुझे खु़दा ने दिया है वह मर्तबा और शान।
जिधर को जाऊं उधर ऐश रंग फूल और पान।
उछल है, कूद है, लज़्ज़त<ref>स्वाद, आनन्द, तुल्फ</ref>, मजे, खुशी के ध्यान।
गले लिपटते हैं महबूब गुल बदन हर आन।
घड़ी-घड़ी की नई सैर ही उड़ाई है॥15॥

कहा बुढ़ापे ने चल झूठ इतना मत बोले।
फ़िदा तू जिनपे है वह मेरे पांव हैं पड़ते।
हमें कहें हैं वह ”हज़रत“ तुझे कहें हैं ‘अबे’।
हज़ारों बार पड़े तुझ पै लात और घूंसे।
भला बता तू कहीं हमने मार खाई है?॥16॥

तुझे कुचलते हैं वह ख़ूबरू<ref>सुन्दर, रूपवान</ref> जो लातों में।
हम उनको मार उतारे हैं दम की बातों में।
हम ऐश दिन को उड़ाते हैं और तू रातों में।
करें हैं इश्क़ को हमजिस तरह की घातों में।
तुझे कहां अभी इस बात में रसाई<ref>पहुंच, प्रवेश</ref> है॥17॥

कि जिनके वास्ते गलियों में फिरे हैं ख़्वार।
हम उनकी लूटें हैं ऐशो तरब<ref>हर्षोल्लास</ref> के बीच बहार।
तुझे तलाशो तलब<ref>मांगना, चाहना</ref> में कटे हैं लैलो<ref>रात</ref> निहार<ref>दिन</ref>।
हम अपनी टट्टी में बैठे ही खेलते हैं शिकार।
तू क्या वह जाने जो कुछ हमने घात पाई है॥18॥

बुढ़ापे ने कहा उस दम जवानी से ”बाबा“।
मेरा तो वस्फ़<ref>गुण, प्रशंसा, तारीफ़</ref> किताबों में है लिखा हर जा<ref>हर जगह</ref>।
बुजुर्गी और मशीख़त<ref>बुजुर्गी, बड़प्पन</ref> बुढ़ापे में है सदा।
तेरी जो बात का मज़कूर<ref>जिक्र</ref> है कहीं आया।
तो हर तरीक़ में ख़्वारी ही तुझ पै आई है॥19॥

जुंही जवानी ने ख़्वारी का मुंह से नाम दिया।
बुढ़ापा दौड़ जवानी से बूंही आ लिपटा।
मड़ोड़ी मूंछें इधर उसने दाढ़ी को खींचा।
लड़े जो दोनों बड़ा हर तरफ़ यह शोर मचा।
कि यारो दौड़ियो, फरयाद है दुहाई है॥20॥

खड़े थे लोग हज़ारों यह दोनों लड़ते थे।
घड़ी पछाड़ते थे और घड़ी पछड़ते थे।
जो बाजू<ref>बांह</ref> छोड़ते थे तो कमर पकड़ते थे।
हर एक तरफ़ से नए घूंसे लात लड़ते थे।
तो सब यह कहते थे क्या इनके जी में आई है॥21॥

यह मार कूट का आपस में जब हुआ चरखा।
”नज़ीर“ इसमें वहीं एक अधेड़ पन आया।
कुछ इसको रोका इधर और कुछ उसको समझाया॥
तुम अपने खु़श रहो यह अपने खु़श रहें हर जा॥
मिलाप ख़ूब है, लड़ने में क्या भलाई है॥22॥

शब्दार्थ
<references/>