जवाब / नीना कुमार
कह दो साज़िश-ए-हयात<ref>जीवन का षड्यंत्र</ref> का है यह वाक़िया<ref>घटना</ref> एक सबूत
कह दो उलझन-ए-ज़ीस्त<ref>ज़िन्दगी की उलझन</ref> का है ये एक जाल-ए-अन्कबूत<ref>मकड़ी का जाल</ref>
एक हलचल सी वीरानियों में उठी और गुबार उफ़क़<ref>क्षितिज</ref> पे
के बढ़ रहा है शोर-ओ-गुल, छीनने को दश्त<ref>रेगिस्तान</ref> का सुकूत<ref>ख़ामोशी, चुप्पी, शान्ति</ref>
घिरे बिजली-ए-शमशीर<ref>तलवार की बिजली</ref> चमक से जिस सिम्त<ref>दिशा</ref> गई निगाह
क्या मेरा फरेब-ए-नज़र<ref>नज़र का धोखा</ref> था ये, या एक वहम-ए-मख्बूत<ref>पागल का वहम</ref>
क्यों मैदान-ए-जंग बन रही दिल की ज़मीन यहाँ पे
किस तरह की आग में धुंआ हो रहा है लहू-ए-नासूत<ref>मनुष्य का लहू</ref>
चलो पूछ लो सवाल आज, आएँ जितने भी ज़ेहन में
के आख़िरी जवाब-ए-ज़िन्दगी तो देगा जहाँ-ए-लाहूत<ref>सर्व-व्यापी व सर्वशक्तिमान का संसार</ref>