भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जश्ने ग़ालिब / साहिर लुधियानवी
Kavita Kosh से
- (यह नज़्म 1968 में लिखी गई)
इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को,
तब जाके कहीं हम को ग़ालिब का ख़्याल आया ।
तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका,
अब अपने सुख़न परवर ज़हनों में सवाल आया ।
- सौ साल से जो तुर्बत चादर को तरसती थी,
- अब उस पे अक़ीदत के फूलों की नुमाइश है ।
- उर्दू के ताल्लुक से कुछ भेद नहीं खुलता,
- यह जश्न, यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है ।
जिन शहरों में गुज़री थी, ग़ालिब की नवा बरसों,
उन शहरों में अब उर्दू बे नाम-ओ-निशां ठहरी ।
आज़ादी-ए-कामिल का ऎलान हुआ जिस दिन,
मातूब जुबां ठहरी, गद्दार जुबां ठहरी ।
- जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िन्दा जुबां कुचली,
- उस अहद-ए-सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों है ।
- ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था,
- उर्दू पे सितम ढा कर ग़ालिब पे करम क्यों है ।
ये जश्न ये हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं,
कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ ।
जो वादा-ए-फ़रदा, पर अब टल नहीं सकते हैं,
मुमकिन है कि कुछ अर्सा, इस जश्न पर टल जाएँ ।
- यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,
- हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।
- गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,
- हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं ।
तुर्बत= क़ब्र; मसकन= निवासस्थान; अक़ीदत - श्रद्धा, वादा-ए-फ़रदा= कल के लिए किया गया वायदा