जश्न की रात / निरंजन श्रोत्रिय
‘अब छोड़ो भी ये बातें मनहूसियत की
और जश्न की इस मधुर संध्या पर
उठाओ यह छलकता जाम’ जैसी मीठी झिड़की को
नकार सकते हैं यदि आप, तो ही पढ़ें
यह कविता........
कविता जो शुरु करना चाहता था कवि
उमंग, उल्लास, उजास, उम्मीद जैसे कुछ शब्दों से
लेकिन नहीं कर सका
क्योंकि वह देख पा रहा था
इस जगमग रोशनी के पार
पसरा हुआ एक अँधियारा जो ध्ंसा हुआ था
पृथ्वी की आत्मा में
लोग खुश थे- खिलखिला रहे थे
मार रहे थे ठोकर पैरों में लोटते किसी भयावह सच को
लेकिन सच था कि लिपटने को आमादा
गरजती थी आवाजें
कैसे आ गया यह बिन बुलाये
हुआ जा रहा रंग में भंग--हटाओ इसे यहाँ से
लोग ढूंढते उसे कभी टेबिल के नीचे, कभी कनात के पीछे
कभी पीछे किसी झाड़ी के
लेकिन वह टुकड़ा था हमारी आत्मा से रिसता/ झुठलाते जिसे
बीती जा रही थी सदियों पर सदियां
पार्टी थी पूरे शबाब पर
जिसकी रंगीनियों में किये जा रहे थे कुछ नये वादे
सौदे की शक्ल में
किये जा रहे थे कुछ प्रस्ताव जिसका मसौदा
ले चुका था अंतिम शक्ल
मनाया जा रहा था ईश्वर को जो सो चुका था कोप-भवन में रोते-रोते
उस सर्द रात में जब पारा शून्य के आसपास ठिठुर रहा था
गर्माहट के कुछ शर्मनाक तरीकों की धुंध के पार
दिखाई पड़ रहा था सियाचीन का साफ और उजला आसमान
जहां शून्य से पचास डिग्री सैल्सियस नीचे
कोई जाँबाज पुकार रहा था अपनी बर्फीली मगर दृढ़ आवाज़ में
कि चिन्ता न करना हमारी हम हैं यहां महफूज़!
पार्टी में चिन्ता की जा रही थी संभावित वृद्धि की पेट्रोल के भावों में
पहियों के रुकने की आशंका में दुखी थे दलाल और मुनापफाखोर
उध्र किसी घर में ‘पापा’ लिखना सीख रही थी कुछ मासूम अंगुलियां
पापा की अंगुलियां ट्रिगर पर फंसी थी और ध्यान लक्ष्य पर
कवि प्रदीप और लता मंगेशकर की आत्माओं से निकला मर्मभेदी गीत
समय की अतल गहराईयों में डूब चुका था।
पार्टी जम रही थी और कनात के उस पार जूठन की उम्मीद में बैठी
कुछ आशाएं बुझने को थीं
लेकिन कनात के इस पार मचा हुआ था द्वन्द्व कुछ चश्मों, झोलों, दाढ़ियों,
तोंदों और लिपस्टिक्स के बीच
कि होनी ही चाहिये समतावादी समाज की स्थापना
इस मुल्क में वरना होगी क्रान्ति
सुन लिया समाजवाद ने और वह दुबक गया आलू की चिप्स के नीचे
क्रान्ति शब्द सुनते ही जोश में खुला एक ढक्कन
और फैन लगा बहने दरिया बन
मुक्तिबोध् की कविता के डोमाजी का वंशज
जो इस तरल बहस में दुःखी होने की हद तक
भावुक हो चला था अचानक करने लगा उल्टियां झाड़ियों के पीछे
और वह दूसरा जिसे चढ़ता था नशा पांच पैग के बाद ही
समझाने लगा जीन्स में फंसे एक दुबले नौजवान को
--‘दिस कन्ट्री हेज नो पफ्यूचर! व्हाय डोन्ट यू ट्राय फार ए फारेन एसानइमेंट!’
दुबला नौजवान गद्गद् था।
पार्टी खत्म नहीं होना चाहती थी मगर ज्यादातर लोग लुढ़क चुके थे
सहमत और असहमत जा चुके थे एक ही गाड़ी में बैठ
मेजबान खुश थे कि मेहमान खुश हुए
मेहमान खुश थे कि इस बार पार्टी में कनात के उस पार से
किसी ने नहीं उछाला पत्थर!