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जसुदा ! देखि सुत की ओर / सूरदास

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राग बिलावल

जसुदा ! देखि सुत की ओर ।
बाल बैस रसाल पर रिस, इती कहा कठोर ॥
बार-बार निहारि तुव तन, नमित-मुख दधि -चोर ।
तरनि-किरनहिं परसि मानो, कुमुद सकुचत भोर ॥
त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर ।
मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर ॥
देत छबि अति गिरत उर पर, अंबु-कन कै जोर ।
ललित हिय जनु मुक्त-माला, गिरति टूटैं डोर ॥
नंद-नंदन जगत-बंदन करत आँसू कोर ।
दास सूरज मोहि सुख-हित निरखि नंदकिसोर ॥

भावार्थ :-- (गोपी कहती है-) `यशोदा जी! (तनिक) पुत्र की ओर (तो) देखो । इस रसमयी (खेलने योग्य) अवस्था के बालक पर इतना कठोर क्रोध क्या (उचित है)? यह दही-चोर, बार-बार तुम्हारी ओर देखकर मुख झुका लेता है मानो प्रातःकाल सूर्य का स्पर्श होने से कुमुदिनी संकुचित हो गयी हो । भय के कारण नेत्र अत्यन्त चञ्चल हो रहे हैं, मानो (दो) मछलियों को बंशी में फँसाकर जल में हिलाया जा रहा हो । वक्षःस्थल पर वेग पूर्वक गिरती आँसू की बूँदें अत्यन्त शोभा दे रही हैं, मानो सुन्दर हृदय पर (धारण की हुई) मोतियों की माला ही तागे के टूट जाने से गिर रही हो । जगत् के वन्दनीय श्रीनन्दनन्दन आज आँखों के आँसू कोनों में भर रहे हैं ।' सूरदास जी कहते -`मुझे आनन्द देने के लिये नन्दलाल ! अपने इस दास की ओर (एक बार) देख तो लो ।'