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जस्तेक के दिन / शिवशंकर मिश्र

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हफ्ते बीते ओर
अभी हफ्ते बाकी हैं!

जाने कैसे बीतेंगे दिन,
हार गया उँगली पर गिन-गिन,
चैन नहीं आए तो दो छिन ;
बिछुड़े जब से,
प्राण हुए ये एकाकी हैं!

नाम तुम्हा रा लिखा हृदय पर,
आँखों में चित्रित तुम सुंदर,
जागीं आहें तुम से छूकर;
साँसे जैसे
बनी बाँसुरी पीड़ा की हैं!

जाल तने हैं चारों रस्तें,
नहीं निकलना सम्भंव सस्ते ,
चाँदी के दिन निकले जस्ते्;
सीमाएँ सौ यहाँ
एक अभिलाषा की हैं!