जहरिखाल को छूकर जाने वाली / हरिपाल त्यागी
लैंसडाउन से जहरिखाल को
जाने वाली ओ सड़क!
धन्य हैं वे पहाड़-
जिनके सीने पर
मूंग दलती जा रही हो तुम,
फिर भी, मुस्कुराते जो
तुम्हारे इन घुमावों पर।
और नगर से बाहर
कोई एक किलोमीटर दूर
सेंट मेरी गिरजाघर
प्रतीक्षा में खड़ा कब से
तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम।
अब तो बुढ़ा गया है, बेचारा!
सठिया गया है कभी का
तुम तो पहले ही कन्नी काट गयीं,
चट्टानी बाधा को जीभ दिखा
पर्वतों की ओट ले
कहां-कहां से गुजर गयीं,
और यह मूढ़ गिरजाघर
समय के ज्ञान से अनजान
शून्य में है ताकता रहता बराबर।
आंख में अब भी फुदकती
चाह चिड़िया-सी।
एक ओर पर्वत हैं पेड़ों से लदे हुए
इस तरफ खाइयां और घाटियां हैं
आदिवासी लड़कियां हैं नृत्य को तैयार
या हरियालियां झुकी हैं
एक-दूजी की कमर में हाथ डाले
और केशों में सजाये फूल
टह-टह लाल!
घाटी के उस पार
भरा-पूरा परिवार!
बूढ़े, बच्चे, जवान
सटे बैठे हैं भीमकाय डायनासोर।
गरदनें जमीन से टिकी हैं,
या एक-दूसरे की पीठ से चिपकाये हैं
कहां से आ गए थे
किस युग की संतान हैं?
...और उस कमरे पर बिखरे हुए
सिगरेट के पैकेट, माचिस की डिब्बियां
और बच्चों के खिलौने!
यही तो है जहरिखाल!
उधर गोलार्ध में
बीस में से उन्नीस बचे देवदार
मिलेट्री ग्रीन वर्दी में
खड़े तैनात।
(कालेज के माली ने इन्हें रोपा था चालीस बरस पहले)
ओ, लैंस डाउन से
जहरिखाल को गुजरने वाली सड़क!
सुन रही तुम भी हमारी बात?
वाचस् और अभय
बताते चल रहे हैं साथ
गेरुआ पट्टी के नीचे
सफेदी के वे दो पैच-
यही डिग्री कालेज है
और वह-हमारा घर है।
कालेज से बायीं ओर
ऊपर को उठा हुआ
जीवन-धारा आश्रम है।
(ईसाई मिशनरी का हेडक्वार्टर)
कुछ और बायी तरफ
वह टूटती-सी सफेद लकीर
बाजार है उस बस्ती का
और जहरिखाल
होकर गुजरने वाली सड़क,
तुम्हारे दायें-बायें
ऊपर-नीचे, इधर-उधर
बिखरे हुए जो घर,
दो हजार आबादी की बस्ती-
यही है जहरिखाल?