जहर पिला देना चाहता हूँ / हरीश भादानी
जहर पिला देना चाहता हूँ
रातों में बाज़ार लगाती
इन यादों को !
ये यादें-
भोले चरवाहे सपनों पर
जादू-सी चढ़कर बोला करती हैं,
मेरी सृजन चढ़ी हुई
आँखों के आगे
बिना ताल स्वर के
नाचा करती हैं,
पोर-पोर में चुभ जाती है
इतना दर्द दिये जाती हैं,
आसमान गदला जाता है
जिसको धोते-धोते
मेरी सांस-सांस
थकने लगती है,
सौगंध दिलाता हूँ सपनों को
मैं अपनी घरवाली
सती-धूप की
वे केवल मेरे ही होकर
जीना सीखें !
लेकिन
पसरी हुई रात की
रसिया यादें
हर सौगंध तुड़ा देती हैं;
दुखिया मन के जाये सपने
सूरज से अपनाया गाँठे,
छोड़ें नहीं पठारी धरती,
और विरासत-
चूल्हा-चिमनी
पेट बजाती हुई भीड़ को
देखें-भालें,
हाथ उठायें,
नसें तनायें,
ऐसी साधें रहें न आधी
इसीलिये
मैं ज़हर पिला देना चाहता हूँ
रातों में बाज़ार लगाती
इन यादों को !