भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल / अंजुम रूमानी
Kavita Kosh से
जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल
न था कुछ ब-जुज़ हसरत-ए-पाएमाल
मुझे तेरा तुझ को है मेरा ख़याल
मगर ज़िंदगी फिर भी हैं ख़स्ता-हाल
जहाँ तक है दैर ओ हरम का सवाल
रहें चुप तो मुश्किल कहें तो मुहाल
तेरी काएनात एक हैरत-कदा
शनासा मगर अजनबी ख़द-ओ-ख़ाल
मेरी काएनात एक ज़ख़्म-ए-कोहन
मुक़द्दर में जिस के नहीं इंदिमाल
नई ज़िंदगी के नए मकर ओ फ़न
नए आदमी की नई चाल-ढाल
हुए रूख़्सत अंजुम सहर के क़रीब
न देखा गया शायद अपना मआल