भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहाँ तक हो सके / कंस्तांतिन कवाफ़ी
Kavita Kosh से
और अगर तुम बना नहीं सको अपना जीवन
जैसा चाहो वैसा
तो कम से कम इतना करो : उसे बिगाड़ो मत
(- बैर मत काढ़ो यूँ ख़ुद से -)
सब के इतना मुँह लगा रह कर
लटकते-मटकते, उठते-बैठते, चटर-पटर करते
अपना जीवन सस्ता मत बना लो
दर-दर मारे-मारे फिर कर
हर कहीं इसे कुलियों जैसे ढोते-घसीटते और बेपर्दा करते
यारबाशों और उनके लगाए मजमों की चालू चटोरागिरी के लिए
कि यह भासने लगे -
कोई ऐसा जो लग लिया हो पीछे छेड़खानी करते तुमसे ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : पीयूष दईया