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जहाँ तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है / शकेब जलाली
Kavita Kosh से
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है
न इतना तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
बुरा न मानिये लोगों की ऐब-जूई का
इन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ- कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
वो अलविदा का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
मेरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
के अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है
सिमट के रह गये आख़िर पहाड़- से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है
ये किस मक़ाम पे लाई है जुस्तजू तेरी
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है
खिली है दिल में किसी के बदन की धूप "शकेब"
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है