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जहाँ मैं खिलती हूँ / प्रिया जौहरी

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वो
कोना था
मेरे जीवन का,
एक गहरा,
संकरा,
फिर भी विस्तृत
इतना कि उसमें
पूरा जीवन समा जाए।
समा जाएँ
मेरी हर तकलीफ,
हर रंज,
हर तंज।
उस कोने में बैठकर
लिख सकती हूँ
अनगिनत प्रेम-पत्र,
पढ़ सकती हूँ
मन की दो किताबें,
तोड़ सकती हूँ
कई गुलाब,
और गूँथ सकती हूँ
एक फूलों की माला।
महसूस कर सकती हूँ
नदी का बहाव
ताज़ी हवा का हर झोंका।
देख सकती हूँ
हथेली पर रखा
एक सफेद मोती,
जो किसी चमत्कार सा
चमकता है।
सजा सकती हूँ
बालों में
गुलमोहर की लट,
महक सकती हूँ
एक अनछुई
ख़ुशबू सी।
खिल सकती हूँ
यूँ जैसे
अभी-अभी
कोई ताज़ा कमल
खिला हो।