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जहाँ लहरें हैं, सूर्यास्त है... / आलोक श्रीवास्तव-२

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(1)
मैंने गंगा से मांगा
तुम्हारा वही हंसता चेहरा
रेत पर लहरों के छूटे फूल
एक सूर्यास्त मांगा
और हवाओं में उड़ता
तुम्हारा धानी आंचल

बहुत देर तक बैठा रहा
बचपन के जाने-पहचाने तट पर
फूलों के वृत्त बनाती लहरें
लौटती रहीं आ-आ कर

यहीं देखा था वसंत को आते
गेंदा के पीले फूलों में रंगी कितनी दोपहरें और शामें
एक चेहरे को कल्पना में गढ़ते गुजरीं थीं

बरसों बाद
एक अनजान शहर में मिलीं तुम
तब न गंगा थी वहां
न वे सड़क, गलियां, चौक

एक सू्र्यास्त था हिल्लोलित सागर-जल पर न
और एक लड़की थी
अपने दुखों से लड़ती
और कुछ लहरें थीं
फूलों के वृत्त
और चांद की परछाई

मैंने उससे पूछा --
"देखी हैं तुमने वे लहरें ?"

वह हंसी

गंगा, मुझे घाट के पत्थरों पर टूटती
तुम्हारी लहरें याद आईं ।

मैंने उससे कहा --
'तुम्हें चाहता हूं मैं '

वह चुप हो गई
गंगा, मुझे चांदनी रात में तुम्हारा ख़ामोश
पानी याद आया

फिर बीते बहुत दिन

पीछे छूट गईं गंगा की स्मृतियां

खो दिया मैंने उसे भी
लहरों को, चांद को,
हंसी को, चुप्पी को
थोड़ा-सा खुद को भी
कितनी सड़कों-गलियों-चौकों में

खोजता फिरा हूं वह हंसी
और उसे और-और
खोता गया हूं...

(2)
अंधकार में निकल जाना चाहता हूं
गंगा के तट की ओर
जहां लहरें हैं, सूर्यास्त है
हिचकोलें लेती नावें
डूबते-उतराते फूल हैं


चलोगी वहां ?
मैंने वहीं तुम्हें देखा था
वह शायद महाकाव्य की गंगा थी
कल्पना का उर्वर देश
स्वप्न और मिथक का मिलन-बिन्दु

जिन लहरों के बीच तुम्हारी छवि देखी थी
उन्हीं के किनारे तुम्हारा हाथ थामे
तुम्हारा उड़ता आंचल और
धरती की सबसे सुंदर
तुम्हारी देह-गंध महसूस करते
उन्हीं लहरों की ओर
निकल जाने का मन है ।

तोड़ कर आओगी क्या दीवारें
पत्थर की परिखा
रौशनियों में डूबा यह महानगर ?

बहुत की है प्रतीक्षा
आहत मन
डूब गयी है मेरी भाषा तुम्हारे विरह में

कल तुम एक स्वप्न बन कर आईं थीं
और बहुत दूर के अतीत में कामिनी बन कर
क्या व्यक्ति बन कर
प्रिया बन कर
नहीं आओगी
आज ?

(3)
मैंने उसे झरोखे से देखा
आते-जाते राह पर
आम्र-वृक्ष की ओट से
सरपत से घिरी भीगी पगडंडी पर
भादों की अंधेरी रात में
जल से भरी
एक नदी के किनारे

गांव का सूना पोखर
गोधूली के लाल रंग
और सौ-सौ फूलों में
फूटता-खिलता ...
आता वसंत
संदर्भ हैं उसके

नगर-नगर,
उस दिन जिसे झरोखे से देखा था
उसकी ही छवि को खोजा

वह बारंबार विशाल हुई
नदी हुई
धरती हो गई देश की --
पीले सरसों रंगी

कितनी सदियां, कितने आंसू
झिलमिल-झिलमिल कथा दुख की
वह धरती की पुत्री
प्रिया हुई

उत्तरायण होती गंगा
अपना उत्स खोजती
अपना स्वत्व खोजती
फिर जीवन हुई

मैंने उसे चेतना की आंखों से देखा !