भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहाँ वह काली युवती हँसी थी / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
एक आवाज़ बुलाती है
घने जंगलों, पहाड़ों, मैदानों
नदियों, झरनों, झीलों को पार करती
पीछे छूट गई एक दुनिया
गहरे दर्द से, व्यथा से, पीड़ा से भर कर
डाक देती है
पीछे छूटा एक प्यार
जीवन का सबसे बड़ा सत्य बन कर
सामने आ जाता है
यह कौन बुलाता है
घने वनों के पार
सीले दिनों, उड़ते कुहासों के बीच ?
नहीं साथी, प्यार नहीं
यह एक भावना है,
जो पण्य बन कर बिखरी है इस नगर में
और स्मृति बन कर
जागती है - कहीं दूर
घने वनों के पार
जहां चट्टानों पर गिरती जलधाराओं में
एक छाया ठहरी है
जहां करुणा से बोझिल एक चेहरा दिखता है
सूने पथ पर उदास झरने के किनारे
जहां वह काली युवती हंसी थी
एक विषाद
हंसता है !