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जहां को रंग उल्फ़त का गवारा क्यों नहीं होता / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
जहाँ को रंग उल्फ़त का गवारा क्यों नहीं होता
बसाया है जिसे दिल मे वो अपना क्यों नहीं होता
चला आया अजाने ही हमारी जिन्दगानी में
मुसीबत में कभी फिर भी सहारा क्यों नहीं होता
जिसे नाजों से पाला जिंदगी जिसकी सँवारी थी
बुढ़ापे में वही आँखों का तारा क्यों नहीं होता
कली खिलती है गुलशन में चले आते कई भँवरे
बचाने को उन्हें कांटों का पहरा क्यों नहीं होता
जलाते रोज रहते दीप हैँ जो राह में सब की
कभी तकदीर में उन की उजाला क्यों नहीं होता
जवां कुर्बान हो जाते बचाने सरजमीं अपनी
शहादत का मगर गिन गिन के बदला क्यों नहीं होता
हैं दहशतगर्द बसते औ जहाँ पर खून बहता है
इलाका दुश्मनों का आज सहरा क्यों नहीं होता