Last modified on 3 अप्रैल 2018, at 22:15

जहां को रंग उल्फ़त का गवारा क्यों नहीं होता / रंजना वर्मा

जहाँ को रंग उल्फ़त का गवारा क्यों नहीं होता
बसाया है जिसे दिल मे वो अपना क्यों नहीं होता

चला आया अजाने ही हमारी जिन्दगानी में
मुसीबत में कभी फिर भी सहारा क्यों नहीं होता

जिसे नाजों से पाला जिंदगी जिसकी सँवारी थी
बुढ़ापे में वही आँखों का तारा क्यों नहीं होता

कली खिलती है गुलशन में चले आते कई भँवरे
बचाने को उन्हें कांटों का पहरा क्यों नहीं होता

जलाते रोज रहते दीप हैँ जो राह में सब की
कभी तकदीर में उन की उजाला क्यों नहीं होता

जवां कुर्बान हो जाते बचाने सरजमीं अपनी
शहादत का मगर गिन गिन के बदला क्यों नहीं होता

हैं दहशतगर्द बसते औ जहाँ पर खून बहता है
इलाका दुश्मनों का आज सहरा क्यों नहीं होता