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जहि घ्ज्ञर आहे दादा धिआ हे कुमारी / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

बेटी अपने पिता से विवाह कर देने का आग्रह करती है। पिता उत्तर देता है- ‘बेटी तुम्हारा विवाह तो बहुत पहले ही हो गया, जब तुम अबोध बच्ची थी। तुम्हारा दुलहा वाणिज्य के लिए विदेश गया है।’ उसकी पतिपरायणा पुत्री अपने पिता से उस रास्ते का पता पूछती है, जिस रास्ते से उसका पति वाणिज्य के लिए गया है। पिता उत्तर देता है- ‘उस रास्ते पर तो अब घासेॅ उग आई हैं। उस रास्ते का चिह्न ही मिट गया।’ इस पर बेटी नगर के बाहर कुटी बनवाने को कहती है। पिता इसके लिए भी राजी नहीं है। वह कहता है- ‘तुम राजकुमारी होकर कुटी में कैसे रह सकती हो? वहाँ तो चोर-चंडाल निवास करते हैं। वहाँ रहना तुम्हारे लिए निरापद नहीं होगा।’

जहिं घ्ज्ञर आहे दादा धिआ हे कुमारी, सेहो कैसे सूते नीन हे।
बेटी गे, तोहरो बिहा<ref>विवाह</ref> भेलौं चिलिकाहिं<ref>बचपन में</ref>, लाहा<ref>दुलहा</ref> तोरो बनिजे गेल हे॥1॥
बाबा हो, जहि बटिया लाहा मोर बनिजे गेलै, ओहि बटिया हमरा देखाइ देहो हे।
बेटी गे, जहि बटिया लाहा गेलौं, ओहि बटिा डाभ<ref>एक कुश जैसी घास</ref> कूस जनमि गेलै हे॥2॥
बाबा हो, बाहरो नगरिया कुटिया छराये<ref>छवा दो; बनवा दो</ref> देहो, दुलहा मोर मँगाये देहो हे।
बेटी गे, बाहरो नगरिया बसै चोर चंडालबा, तोहें बेटी राजकुमारि हे॥3॥

शब्दार्थ
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