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ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल बनाती हो / दीपक शर्मा 'दीप'
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ज़ख़्म को ज़ख़्मे-दिल बनाती हो
फिर गिरा कर के फिर उठाती हो
सच में हँसती हो,यार! सच बोलो
मुझको लगता है कुछ छुपाती हो
मुझ से जब मिलने आना होता है
घर के लोगों को, क्या पढ़ाती हो?
तुम पे पानी का ख़्वाब खुलता है
तुम को लगता है तुम नहाती हो
मैं ही बस ख़ुद को बरगलाता हूँ?
तुम भी तो ख़ुद को बरगलाती हो
'उस सड़क पर ही तो है दिल मेरा
जिस से तुम रोज़ आती-जाती हो'
कुछ भी गिरता नहीं है फिर भी, ये
रोज़ झुक-झुक के क्या उठाती हो!
'कल को पछता के फिर न रो देना
अब जो उल्फ़त के दिन गँवाती हो'
किस को खाती हो ‘बादे-दीपक' हां
किस की आंखों में अब लजाती हो!